Tuesday, September 22, 2009

यूँ ही कुछ भी

मुद्दत हुई कब से यही सोचता हूँ मैं,
है आईना बुरा, या फिर बुरा हूँ मैं.




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कुछ न कहने से भी छिन् जाता है एजाज़-ए-सुख़न,
जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है.

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