Thursday, November 1, 2012



उनसे राहत-ए-नज़र का रिश्ता है.
यह ना समझो जिगर का रिश्ता है.

रात कटती सनम के पहलू में,
खुदा से बस सहर का रिश्ता है.

जिसमें खुशबू हो रात-रानी सी,
समझो बस रात-भर का रिश्ता है.

इसमें बाकी है ऐतबार-ए-वफ़ा,
ज़रा कच्ची उमर का रिश्ता है.

वही रिश्ता है मेरा माँ तुमसे,
जो ख़ाक से शज़र का रिश्ता है.

Tuesday, October 30, 2012




कुछ बुरी आदत का वो है शिकार, क्या करें.
हम भी हैं उन आदतों में शुमार, क्या करें.

तुम कहो तो नूर-ए-शम्स लाऊँ नए-नए रंग में,
पर इस शहर में रोशनी का कारोबार क्या करें.

यूँ भी उनकी महफिलों से होश में उठता है कौन,
और उस पर ये मोहब्बत का खुमार, क्या करें.

कहता है वाइज़ रोज़ करना उस खुदा को याद तुम,
करना तो है पर सोचता हूँ, अब बार-बार क्या करें.

कबसे जलाए बैठे हैं हम इन मज़ारों पर च़राग,
मुद्दत हुई आता नहीं कोई सोगवार, क्या करें.

Thursday, October 25, 2012



भाड़ में जाए चाँदी-सोना,
बच्चा चाहे कोई खिलौना.

एक तेरी आँखों के आगे,
पानी भरता जादू-टोना.

इस कारन मुट्ठी ना खोली,
छूटे ना आँचल का कोना.

इश्क के दीवानों की निशानी,
डूब के हँसना, फूट के रोना.

इन भूखे पेटों के सपने,
पत्तल भर चावल, सब्जी भर दोना.

इतनी बड़ी दुनिया के आगे,
क्या मेरा होना ना होना.

रहनुमाओं से सीखा हमने,
फूलों को काँटों में पिरोना.

नींद कहाँ फिर किस्मत में जब,
छूट गया ममता का बिछोना.

मौत का क्या, आनी-जानी है,
तुम अपना दामन ना भिगोना.

इन ग़ज़लों के माने क्या हैं,
गागर में सागर को समोना.

Monday, October 22, 2012


यारों गम-ए-हयात का चर्चा किया ना जाए
अभी इस अधूरी बात का चर्चा किया ना जाए

माशूक वो मेरा सही, नुक्ताचीं भी तो है,
उस से मेरे जज़्बात का चर्चा किया ना जाए

थी गैर संग गुजरी, वो गैर जैसी रात,
किसी गैर से उस रात का चर्चा किया ना जाए

सरे-राह वो जिबह हुआ और सबने पिया लहू,
सभी में बटी खैरात का चर्चा किया ना जाए

सर पे उनके ताज है, पर पांव में बेडियाँ,
यहाँ गर्दिश-ए-हालात का चर्चा किया ना जाए

माना कि नामुराद है पर बेगैरत नहीं फ़िदा,
मुझसे मेरी औकात का चर्चा किया ना जाए

Friday, April 9, 2010

टूटी हुई चप्पल




एक थे मगन लाल शर्मा जी और एक थी उनकी चप्पल.
मगन लाल जी जब मोहल्ले भर के लिए मग्गू हुआ करते थे, तुतलाकर बोलते थे और फटा हुआ नेकर पहनते थे, तब उनके पैरों मैं चप्पल नहीं हुआ करती थी. जब वो स्लेट पर चाक घिसकर 'अ-आ-इ-ई' लिखने लगे, तब पैरों में रंग-बिरंगी नन्हीं सी चप्पल भी आ गई. मग्गू से वो मगन हो primary स्कूल पहुंचे तो चप्पल के आकार में भी कुछ वृद्धि हो गयी. मगन जी पढ़ते गए, बढ़ते गए और चप्पल भी मोटे तले वाली, मजबूत पट्टियों वाली, ज्यादा ओजस्वी और ज्यादा उर्जावान होती गयी. मगन जी की मसें भीगीं तो चप्पल भी धारीदार हो गयी. मगन जी में बड़प्पन आया तो चप्पल भी धीर-गंभीर हो गयी और मगन जी जब दूल्हा बने तो चप्पल का भी वह रूप था 
की मगन जी जितना खुद पे मोहित होते, चप्पल भी खुद पे उतनी ही रीझी जाती. पर समय का फेर मगन जी M. L. Sharma हो गए. रोजगार के लिए कितने ही शहरों, दफ्तरों और कुर्सियों के चक्कर उन्होंने लगाये और तब तक उत्तरोत्तर प्रगति को अग्रसर चप्पल अब दिन-प्रतिदिन घिसने लगी. चप्पल के जिस मोटे तले की वजह से मगन जी स्वयं को दूसरों से कई बालिश्त ऊपर महसूस करते थे, वो इतना घिस गया की उन्हें आस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदार और दोस्त-यार अपने से दो हाथ ऊँचे लगने लगे. पहले-पहल तो मगन जी को बहुत बुरा लगा और खीझ मिटाने को वो अकेले मैं रोये भी पर धीरे-धीरे उन्हें इसकी आदत हो गयी और जब आखिरकार उनकी नौकरी स्कूल में मास्टर की लगी, तब तक वो घिसी हुई चप्पल के खूब आदी हो चुके थे और कभी तो बिना चप्प्पल वालों को देखकर हंस भी लेते थे. जिस दिन मगन जी के यहाँ पहला बच्चा हुआ और जिस दिन पहला वेतन हाथ आया, मगन जी ने चप्पल को रगड़-रगड़ कर चमकाया, पर बच्चे का नामकरण होते -होते और मास का आखिरी सप्ताह आते आते चप्पल की चमक पुनः धूमिल हो गई. जब मगन जी नौकरी की धकापेल और घर-परिवार की जिम्मेदारियों के बीच सामंजस्य बनाने का प्रयास कर रहे थे, चप्पल भी अपनी कमजोर पड़ती पट्टिओं को घिसे हुए तले के साथ व्यवस्थित कर रही थी. और फिर एक दिन जब प्रिसिपल ने मगन जी को कमरे मैं बुलाकर किसी बात पर डांट पिलाई, चप्पल तड़क कर के टूट गयी. उसके बाद तो चप्पल न जाने कितनी वजहों से, कितनी जगह से, कितनी बार टूटी और हर बार चूंकि काम तो चलाना ही था, इसलिए उसमें न जाने कितनी तरह के पैबंद लगे. हर मास की पहली तारीख, वेतन हाथ में और एक नया पैबंद चप्पल पर, पर मास बीतते-बीतते न जाने कितनी और जगह से चप्पल के धागे खुल जाते. इसी तरह दिन कटते थे और समझ न आता था की पता नहीं पहले मगन जी जिंदगी से हारेंगे या उनकी चप्पल. चप्पल न होती तो मगन जी नंगे पैरों वाले संत हो जाते, पर चप्पल थी, बदस्तूर थी...या अब सिर्फ पैबंद थे. 
खैर एक दिन मगन जी स्कूल जाते-जाते रास्ते मैं भीड़ देख ठहर गए. साईकिल खड़ी कर कुछ उचक कर देखा तो जाना किसी नेता की सभा हो रही है. लम्बा-तगड़ा सा नेता, बदन पर रेशमी खद्दर का कुरता-पायजामा, नेहरु जॉकेट और पैरों मैं सुन्दर जूतियाँ. भाषण बढ़ता विदेशी निवेश, चढ़ता शेयर बाजार, multiplex, nano कार आदि.....यानी कुल मिलकर देश के खुशहाल हालात और इस वजह से जनता के वोट पर बनने वाले सुन्दर जूतियों वाले नेता के हक़ के बारे मैं था.
मगन जी को यह सब सुनकर बहुत गुस्सा आया, अंग-अंग फड़कने लगा और मूंह से अस्फुट से अपशब्द निकलने लगे. जी में आया खींचकर चप्पल नेता के मूंह पर मार दें. पर....................चप्पल तो टूटी हुई थी. 

Friday, November 20, 2009

परिंदा या दरिंदा






निर्दोष परिंदा हूँ मैं या कोई दरिंदा हूँ मैं,
मुझे अब तक समझ नहीं आया, अच्छा हूँ की गन्दा हूँ मैं.


कभी वेद-पुराण की बातें करूँ, गीता के ज्ञान की बातें करूँ.
हर सुबह-सवेरे उठकर मैंघंटों भगवान् की बातें करूँ.
पर शाम ढले ही मैखाने के द्वार मुझे बुलाते हैं,
पैमाने को होंठ लगाते ही सब वेद-पुराण भूल जाते हैं.


कभी तो साकी को सजदा करूँ, कभी खुदा का बन्दा हूँ मैं.
मुझे अब तक समझ नहीं आयाअच्छा हूँ की गन्दा हूँ मैं.


आँखों में हवस की चमक कभी, सीने में दबी कई इच्छाएं,
नफरत - वहशत हैं मचल रहीं, नहीं इनकी कोई सीमाएं.
और कभी फिर करुणा के सागर सा मैं बन जाता हूँ,
हर जीव-मात्र से प्रेम-दया का संदेस सुनाता हूँ.


कभी तो घ्रणा से भरा हुआ, कभी प्यार में अन्धा हूँ मैं,
मुझे अब तक समझ नहीं आयाअच्छा हूँ की गन्दा हूँ मैं.


कभी लबों से उगलूं अंगारे, कभी नग्मे गाता फिरता हूँ,
आशियाँ बनता और कभी बस्तियां जलाता फिरता हूँ.
साधू-शैतान का संगम मैं, पाप और पुर्णय की छाया हूँ.
कभी आशाओं से आलोकित, कभी भय का गहरा साया हूँ.


कभी सब मुझ पर हैं गर्व करें, कभी खुद पर शर्मिंदा हूँ मैं.
मुझे अब तक समझ नहीं आयाअच्छा हूँ की गन्दा हूँ मैं.

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