Friday, November 20, 2009

परिंदा या दरिंदा






निर्दोष परिंदा हूँ मैं या कोई दरिंदा हूँ मैं,
मुझे अब तक समझ नहीं आया, अच्छा हूँ की गन्दा हूँ मैं.


कभी वेद-पुराण की बातें करूँ, गीता के ज्ञान की बातें करूँ.
हर सुबह-सवेरे उठकर मैंघंटों भगवान् की बातें करूँ.
पर शाम ढले ही मैखाने के द्वार मुझे बुलाते हैं,
पैमाने को होंठ लगाते ही सब वेद-पुराण भूल जाते हैं.


कभी तो साकी को सजदा करूँ, कभी खुदा का बन्दा हूँ मैं.
मुझे अब तक समझ नहीं आयाअच्छा हूँ की गन्दा हूँ मैं.


आँखों में हवस की चमक कभी, सीने में दबी कई इच्छाएं,
नफरत - वहशत हैं मचल रहीं, नहीं इनकी कोई सीमाएं.
और कभी फिर करुणा के सागर सा मैं बन जाता हूँ,
हर जीव-मात्र से प्रेम-दया का संदेस सुनाता हूँ.


कभी तो घ्रणा से भरा हुआ, कभी प्यार में अन्धा हूँ मैं,
मुझे अब तक समझ नहीं आयाअच्छा हूँ की गन्दा हूँ मैं.


कभी लबों से उगलूं अंगारे, कभी नग्मे गाता फिरता हूँ,
आशियाँ बनता और कभी बस्तियां जलाता फिरता हूँ.
साधू-शैतान का संगम मैं, पाप और पुर्णय की छाया हूँ.
कभी आशाओं से आलोकित, कभी भय का गहरा साया हूँ.


कभी सब मुझ पर हैं गर्व करें, कभी खुद पर शर्मिंदा हूँ मैं.
मुझे अब तक समझ नहीं आयाअच्छा हूँ की गन्दा हूँ मैं.

4 comments:

विकास said...

"हर सुबह-सवेरे उठकर मैं, घंटों भगवान् की बातें करूँ.
पर शाम ढले ही मैखाने के द्वार मुझे बुलाते हैं,
पैमाने को होंठ लगाते ही सब वेद-पुराण भूल जाते हैं."
इन चार लाईनों में आपने समूची दुनिया को नंगा कर दिया है....
समूची रचना काबिले तारीफ है.

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया.

हितेष said...

पर शाम ढले ही मैखाने के द्वार मुझे बुलाते हैं,
पैमाने को होंठ लगाते ही सब वेद-पुराण भूल जाते हैं.

Awesome ! Dil ko choo gayee ye panktiyan. Samaj ka sach hain ye.

हरकीरत ' हीर' said...

बहुत खूब ......!!

मनुष्य के चरित्र का बखूबी चित्रण किया है आपने .....!!

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कुछ न कहने से भी छिन् जाता है एजाज़-ए-सुख़न,
जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है.

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