कल ख्वाब में देखा था उसके आँचल को,
मुझे निहारती अब तक हैं सलवटें उसकी.
था बिस्तर पे साथ कल एक अश्क तनहा सा,
मुझे पुकारती अब तक हैं करवटें उसकी.
जो खेलती थी बच्चों जैसे मेरे शाने पर,
बड़ी शरारती अब तक हैं वो लटें उसकी.
हरे हैं अब भी जख्म-ए-उल्फत क्यूंकि,
उन्हें दुलराती अब तक हैं हसरतें उसकी.
1 comments:
बहुत सुन्दर रचना ।
ढेर सारी शुभकामनायें.
SANJAY BHASKAR
TATA INDICOM
HARYANA
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
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कुछ न कहने से भी छिन् जाता है एजाज़-ए-सुख़न,
जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है.