Monday, September 28, 2009

एक संग को अपना खुदा



एक संग को अपना खुदा माना किये थे हम,
यह किसके लिए खुद को दीवाना किये थे हम.


नाखून बन कुरेदता रहा वो मेरे जख्म,
मानिंद-ए-मरहम जिसे जाना किये थे हम.


वक़्त-ए-रुखसत सोचता हूँ, आज उनसे क्या कहूं,
कल भी तो 'मर जायेंगे', ये बहाना किये थे हम.


मैं सजदा करता हूँ जिसे, वो तेरा खुदा नहीं,
बस इस ज़रा सी बात का फ़साना किये थे हम.


अब वो नहीं है इश्क में मरमिटने का जज़्बा,
दिन वो गए, जब खुद को परवाना किये थे हम.

4 comments:

Udan Tashtari said...

क्या बात है...बहुत खूब!!

sonal said...

"एक उम्मीद के सहारे ही तो जी रहे है हम
कुछ भी नहीं बचता उसके टूटने के बाद"
बहुत खूब लिखा है भैया

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुन्दर रचना ।
ढेर सारी शुभकामनायें.

SANJAY BHASKAR
TATA INDICOM
HARYANA
http://sanjaybhaskar.blogspot.com

श्याम जुनेजा said...

aap to jnab mere hi shahr ke... ya kahoon main aapke shahar ka! aur kabhi mulakat hi nahi ho payee! k.L sehgal hall to aksar aana jaana lga rahata hai vishav vidhyalay bhi kbhi karykrm mein nimantran milta rahata hai fir bhi aapse mulakat nahin ho payee kabhi.
मरमिटने का जज़्बा parvanon ke dil se taumr nahin jaata, agar chala jaye to parvana nahin kahlata.
bahut bhahut pyree gazal kahi hai aapney.

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कुछ न कहने से भी छिन् जाता है एजाज़-ए-सुख़न,
जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है.

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