दिल पे जैसे कुछ नशा था, आँखों में खुमारी सी रही;
मिल गए तुम फिर भी हमको, बेकरारी सी रही.
कहना चाहूं तुम से ही बस, राज़-ए-दिल, राज़-ए-वफ़ा;
कह दिया सब, फिर भी जैसे पर्दादारी सी रही.
दिल में उसके प्यार था, पर आँख में दुनिया थी बसी;
अब जाना क्यूँ प्यार में उसके, दुनियादारी सी रही.
तब भी अपनी सी लगी, जब गैर की दुल्हन बनी;
कैसे उसे मानूं परायी, जो कल तक हमारी सी रही.
ए खुदा, मालिक मेरे, कर दे बस इतना करम,
अब उसे ही दवा बना, जो अब तक बीमारी सी रही.
2 comments:
बहुत सुन्दर रचना । आभार
ढेर सारी शुभकामनायें.
SANJAY
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
priy Dr Ankur Rastogi
bunkar to aap khoob hain par darzi dheela hai
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कुछ न कहने से भी छिन् जाता है एजाज़-ए-सुख़न,
जुल्म सहने से भी जालिम की मदद होती है.